कौवा
1 min readOct 12, 2020
मेरे कमरे की खिड़की पर
हर रोज़ एक कौआ आए
झाकेँ शैतानी नज़रो से
फिर वो कहर मचाए
उसका एक ही मकसत
दिन भर मुझे सतना
मेरे सुख चैन नोच लेना
ये है उसने ठाना
वो रोए या वो गाए
मेरी समाज नहीं आए
वो चीखें या चीलाए
क्या वो कहना चाहे
बार बार लगातार किए वार
बरहम कुन ना घबराए
आज़ माये कितने पैतरे
वो बेसुरा गाए जाए
हो सुबह या हो शाम
जीतता वही जाए
राते भी मेरी हराम
ज़ालिम सपनो मे भी आए
मानी मैंने हार
करले जो तू चाहे
बस इतना मुझे बताए
तीस मंज़िल की ये इमारत
इसी खिड़की पे क्यों तू आए?