कौवा

Ravishu Punia
1 min readOct 12, 2020

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ज़ालिम

मेरे कमरे की खिड़की पर
हर रोज़ एक कौआ आए
झाकेँ शैतानी नज़रो से
फिर वो कहर मचाए

उसका एक ही मकसत
दिन भर मुझे सतना
मेरे सुख चैन नोच लेना
ये है उसने ठाना

वो रोए या वो गाए
मेरी समाज नहीं आए
वो चीखें या चीलाए
क्या वो कहना चाहे

बार बार लगातार किए वार
बरहम कुन ना घबराए
आज़ माये कितने पैतरे
वो बेसुरा गाए जाए

हो सुबह या हो शाम
जीतता वही जाए
राते भी मेरी हराम
ज़ालिम सपनो मे भी आए

मानी मैंने हार
करले जो तू चाहे
बस इतना मुझे बताए
तीस मंज़िल की ये इमारत
इसी खिड़की पे क्यों तू आए?

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Ravishu Punia
Ravishu Punia

Written by Ravishu Punia

Only desire is to transcend myself so that I can allow the universe to flow through me; so that I can ‘human’ in much the same way an apple tree ‘apples’

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